भील मामा की आँखें
सूखी धरती, तपती हथेली,
झुर्री में बसी बरसों की झोली।
झाबुआ की वे रूखी राहें,
जैसे पत्थरों ने पी लीं चाहें।
मिट्टी की दीवार, छत अधूरी,
भूख ने ली साँसें मजबूरी।
चूल्हा ठंडा, राख सी रोटी,
बच्चों की आँखों में पथरीली ज्योति।
हर वर्ष उठते मामा मौन,
जैसे हो जीवन कोई ऋण-पत्रक कोन।
गुजरात की भट्टियों में जलते,
हर दिन श्रम की ईंट पे पलते।
धोती में लिपटी धूप पुरानी,
पगड़ी में लिपटी विवश कहानी।
पाँव नंगे, पर आत्मा उजली,
चलते हैं धूप में हौसला बुझी बुझी।
पोते-पोती — हड्डियों के शंख,
कुपोषण ने कर दिए रंग बेरंग।
हर साँझ मामा खुद में लौटते,
और चुप्पी के आँसू में बूँदें जोड़ते।
वर्षों से सरकारी रथ आते,
वादों के रथचक्र वहीं थम जाते।
बिजली, पानी, स्कूल की बात,
काग़ज़ों में लिपटी रह जाती रात।
मिड-डे मील — अब नाम की बात,
भूखे पेट गिनती हैं सरकारी घात।
सपनों की थाली खाली पड़ी है,
आँगन की चुप्पी गहरी गड़ी है।
फिर भी मामा मुस्कुराते हैं,
धूल में बीज से कुछ कह जाते हैं।
कहते हैं —
“धरती माँ है, देर-सवेर दे जाएगी,
हम जैसे लोग,
बस चुपचाप
बीज बोते जाएंगे…”
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