आग के आँचल में बसी ज़िन्दगी


 भोर तले जब सूरज जागे,

अग्नि के द्वार पर लौहार भागे।

हाथों में जादू, आँखों में धूप,

साँसों में लोहा, छालों में रूप।


छन-छन छनके छैनी की बोली,

भट्ठी सुनाए अग्नि की ठिठोली।

हथौड़ा कोई बाजा नहीं,

पर उसमें हर गीत पुराना सही।


लोहे को वो जैसे सजा देता,

अधजली आग में कंचन रचा देता।

उसकी गाड़ियाँ — सिर्फ़ पहिए नहीं,

वो सपनों को पथ दिखा देती हैं कहीं।


धुएँ की ओढ़नी, अंगारों का ताज,

वो राजा नहीं, पर किस्मत का राज।

रोटी, नमक, और पुरखों की बात,

हर कौर में पसीना, हर निवाले में प्रात।


उसकी ज़िन्दगी — कोई किताब नहीं,

बल्कि लौ से लिखी कोई इंकलाब नहीं?

जिसने प्रताप की सेना में ढालें गढ़ीं,

और इतिहास की ईंटों पर लौह-लकीरें लिखीं।


उसके बच्चे — तारे नहीं, चिंगारियाँ,

जो आँखों में आग, हथेलियों में कहानियाँ।

खेलें हथौड़े से, रचें गीत गाड़ियों के,

उनके खिलौने भी जैसे वारिस हैं पीढ़ियों के।


पहनावा उसका — धूप से बुना चोला,

जिसमें हर सलवट में लिखा है भोला।

ना सोना, ना चाँदी, पर तन पे गर्व की थाप,

वो जो पहनता है, वो मेहनत का आप।


अब गाँवों से दूर, मशीनों का शोर,

फिर भी कहीं गूंजे उसका मनमोर।

जहाँ लोहा बोले, जहाँ छिन-छिन गूँजे,

वहीं लौहार की आत्मा फिर से जगे।


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