मिट्टी के खिलौने


 बचपन मेरा — धूल में खिला,

मिट्टी से सना, मगर मन से धुला।

काँच नहीं थे, ना रंग-बिरंगे खेल,

फिर भी हर दिन था रंगों से मेल।


चूल्हा-चौका, गुड़िया की शादी,

घरोंदा बनता माँ की आँगनबाड़ी।

टूटी चप्पल, आँखों में तारे,

खुशियाँ मिलतीं थे यूँ ही प्यारे।


पेड़ों की छाँव, नदी की धार,

कंचों की चमक, था सपना साकार।

ना घंटों की गिनती, ना अलार्म की तान,

हर दिन था अपना, हर पल मेहमान।


आज का बचपन — चकाचौंध में डूबा,

मोबाइल की दुनिया में खुद को खोता।

आँखें थकी हैं, सपने डिजिटल,

जहाँ स्पर्श नहीं, बस स्क्रीन का हलचल।


न मिट्टी की खुशबू, न खिलखिलाहट,

बचपन से रूठ गई अब वो आहट।

खिलौने हैं प्लास्टिक, मुस्कान बनावटी,

बचपन की रंगोली अब लगती है खाली।


काश कोई पवन फिर वो दिन ले आए,

जहाँ बच्चे मिट्टी में माँ को पाए।

जहाँ खिलौने टूटें, पर रिश्ते जुड़ें,

जहाँ असली हँसी हर कोने में गुँजें।

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