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Showing posts from July, 2025

आग के आँचल में बसी ज़िन्दगी

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  भोर तले जब सूरज जागे, अग्नि के द्वार पर लौहार भागे। हाथों में जादू, आँखों में धूप, साँसों में लोहा, छालों में रूप। छन-छन छनके छैनी की बोली, भट्ठी सुनाए अग्नि की ठिठोली। हथौड़ा कोई बाजा नहीं, पर उसमें हर गीत पुराना सही। लोहे को वो जैसे सजा देता, अधजली आग में कंचन रचा देता। उसकी गाड़ियाँ — सिर्फ़ पहिए नहीं, वो सपनों को पथ दिखा देती हैं कहीं। धुएँ की ओढ़नी, अंगारों का ताज, वो राजा नहीं, पर किस्मत का राज। रोटी, नमक, और पुरखों की बात, हर कौर में पसीना, हर निवाले में प्रात। उसकी ज़िन्दगी — कोई किताब नहीं, बल्कि लौ से लिखी कोई इंकलाब नहीं? जिसने प्रताप की सेना में ढालें गढ़ीं, और इतिहास की ईंटों पर लौह-लकीरें लिखीं। उसके बच्चे — तारे नहीं, चिंगारियाँ, जो आँखों में आग, हथेलियों में कहानियाँ। खेलें हथौड़े से, रचें गीत गाड़ियों के, उनके खिलौने भी जैसे वारिस हैं पीढ़ियों के। पहनावा उसका — धूप से बुना चोला, जिसमें हर सलवट में लिखा है भोला। ना सोना, ना चाँदी, पर तन पे गर्व की थाप, वो जो पहनता है, वो मेहनत का आप। अब गाँवों से दूर, मशीनों का शोर, फिर भी कहीं ...

भील मामा की आँखें

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 सूखी धरती, तपती हथेली, झुर्री में बसी बरसों की झोली। झाबुआ की वे रूखी राहें, जैसे पत्थरों ने पी लीं चाहें। मिट्टी की दीवार, छत अधूरी, भूख ने ली साँसें मजबूरी। चूल्हा ठंडा, राख सी रोटी, बच्चों की आँखों में पथरीली ज्योति। हर वर्ष उठते मामा मौन, जैसे हो जीवन कोई ऋण-पत्रक कोन। गुजरात की भट्टियों में जलते, हर दिन श्रम की ईंट पे पलते। धोती में लिपटी धूप पुरानी, पगड़ी में लिपटी विवश कहानी। पाँव नंगे, पर आत्मा उजली, चलते हैं धूप में हौसला बुझी बुझी। पोते-पोती — हड्डियों के शंख, कुपोषण ने कर दिए रंग बेरंग। हर साँझ मामा खुद में लौटते, और चुप्पी के आँसू में बूँदें जोड़ते। वर्षों से सरकारी रथ आते, वादों के रथचक्र वहीं थम जाते। बिजली, पानी, स्कूल की बात, काग़ज़ों में लिपटी रह जाती रात। मिड-डे मील — अब नाम की बात, भूखे पेट गिनती हैं सरकारी घात। सपनों की थाली खाली पड़ी है, आँगन की चुप्पी गहरी गड़ी है। फिर भी मामा मुस्कुराते हैं, धूल में बीज से कुछ कह जाते हैं। कहते हैं — “धरती माँ है, देर-सवेर दे जाएगी, हम जैसे लोग, बस चुपचाप बीज बोते जाएंगे…”

मिट्टी के खिलौने

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  बचपन मेरा — धूल में खिला, मिट्टी से सना, मगर मन से धुला। काँच नहीं थे, ना रंग-बिरंगे खेल, फिर भी हर दिन था रंगों से मेल। चूल्हा-चौका, गुड़िया की शादी, घरोंदा बनता माँ की आँगनबाड़ी। टूटी चप्पल, आँखों में तारे, खुशियाँ मिलतीं थे यूँ ही प्यारे। पेड़ों की छाँव, नदी की धार, कंचों की चमक, था सपना साकार। ना घंटों की गिनती, ना अलार्म की तान, हर दिन था अपना, हर पल मेहमान। आज का बचपन — चकाचौंध में डूबा, मोबाइल की दुनिया में खुद को खोता। आँखें थकी हैं, सपने डिजिटल, जहाँ स्पर्श नहीं, बस स्क्रीन का हलचल। न मिट्टी की खुशबू, न खिलखिलाहट, बचपन से रूठ गई अब वो आहट। खिलौने हैं प्लास्टिक, मुस्कान बनावटी, बचपन की रंगोली अब लगती है खाली। काश कोई पवन फिर वो दिन ले आए, जहाँ बच्चे मिट्टी में माँ को पाए। जहाँ खिलौने टूटें, पर रिश्ते जुड़ें, जहाँ असली हँसी हर कोने में गुँजें।

ईरान — एक ख़्वाब, एक ख़ुशबू

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जब भी ईरान को तस्वीरों में देखा, लगा कोई ख़्वाब हो — रंगों का ख़्वाब। नीले गुम्बद, फ़िरोज़ी टाइलें, गुलज़ार सी मस्जिद, मिट्टी में गुलाब। बाज़ार जैसे कश्मीर के क़ालीन, रंगों में लिपटे हर राह ओ मआब, मीनारों की चुप में सदा जैसे यादें सुनाती हों कोई किताब। ईरान से आया संतूर का नग़्मा, धड़कन में घुला कोई दर्द का साज़, “जानम”, “नाज़नीन”, “बेख़ुदी” की रिमझिम, हर जज़्बा जैसे हो ईरानी राज़। ये सरहदों का क़ैदी नहीं, ये दिल्ली की चाय की प्याली में है। लखनऊ की रक़ाबी, हैदराबाद की शेरवानी, बनारस के पानदान की ख़ुशबू में है। ये हमारी बोली में है, दाल-रोटी, लोरी, और अल्फ़ाज़ में। “अफ़सोस”, “आराम”, “उम्मीद” बन कर, रहता है रोज़-ओ-शब की आवाज़ में। ईरान से आए वो सूफ़ी बुज़ुर्ग, जिन्होंने ग़म को इबादत कहा। जिन्होंने इश्क़ को सजदा बनाया, जिनके सांसों में ज़ौक़-ए-वफ़ा। ईरान कोई मुल्क नहीं है, जीने का एक सलीक़ा है। दुख को क़रार से सहने का, और ख़ुशी को ख़ामोशी से बाँटने का तरीक़ा है। जब ईरान ज़ख़्मी होता है, लगता है जैसे अपने ही आँगन में आग लगी हो। जैसे बुज़ुर्गों की क़ब्र पर पत्थर गिरे हों, दिल की महराबों में...